कभी पाँचवीं मंन्जिल के परदों के पीछे छुप के हंसती हैं
तो कभी बारिश की हर बूँद के साथ अपने आँसुअों को धोती हैं ।
ये मुम्बई की इमारतें भी जो हैं न
वो हर बार मुझसे कुछ कहती हैं
कभी रास्तों को दूर तक ताकती रहती हैं
तो कभी मुड़ कर मुझे देखते ही
खिड़कियाँ बंद कर लेती हैं
कभी अपनी चमड़ी पर पड़े पेन्ट को देख़ शर्माती हैं
अरे मोहतरमा इतना क्यूँ लजाती हैं?
बारिशें क्या कम हैं जो अब आप भी सताती हैं?
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