कभी,
जब छत पर,
कोई नहीं होता है,
तो जाता हूँ बैठने,
देर रात मैं,
ताकता हूँ देर तक,
दूर तक,
पर कोई नहीं आता,
जो कन्धों से कन्धा टकराते हुए,
कहे कि "क्या हुआ?"
और मैं कहूँ "कुछ नहीं। "
कहे "बताओ न क्या हुआ?"
और मैं कहूँ " कुछ भी तो नहीं। "
जब छत पर,
कोई नहीं होता है,
तो जाता हूँ बैठने,
देर रात मैं,
ताकता हूँ देर तक,
दूर तक,
पर कोई नहीं आता,
जो कन्धों से कन्धा टकराते हुए,
कहे कि "क्या हुआ?"
और मैं कहूँ "कुछ नहीं। "
कहे "बताओ न क्या हुआ?"
और मैं कहूँ " कुछ भी तो नहीं। "
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